स्नेहीजन

Wednesday, March 10, 2010

पहाड़ियौ उठ ! (कुमांउनी कविता )

(हिंदी तर्जुमे के साथ )
पहाड़ियौ
उठ !
तुम नि जाणना कि ह्वै रौ
तुम पथरीला गाड़ - खेतून में
'सोना' उगुने कोशिश कर छा
और 'लोहा' समझि भेर
सरहद पर भेज छा
आफन बालक....
तुम नि जाणना
बालक लोहा का बनिना का नि हुना ....
उन्स सरहद पर 'लोहा' खान् पड़लो...!
उन शहीद नै बल्कि
राजनीती का हातून
पिटिया 'मोहरा ' ह्वाल ....
और भोल सरकारी दफ्तारून में
तुमरी बद हवाश ब्वारीन
लोग कै नज़रले देखाल ....?
तुम नि जाणना ...
ये कारन पहाड़ियौ उठ !
आफन पथरीला खेतून में
आब 'सोना ' नै बल्कि 'लोहा' उगा !
(
दीपक तिरुवा)

पहाडियों उठो!

तुम नहीं जानते
क्या हुआ है?
तुम पथरीले खेतों में
सोना उगाने की
कोशिश करते हो..
और लोहा समझ कर
सरहद पर भेजते हो
अपने बच्चे....
तुम नहीं जानते
बच्चे लोहे के नहीं होते...
वे सरहद पर लोहा खाएँगे।
वे शहीद नहीं
सियासत के हाथों पिटे हुए
मोहरे होंगे...
और कल सरकारी दफ्तरों में
तुम्हारी बदहवाश बहुएँ
किस 'एंगल और फ्रेम' से
देखी जायेंगी ?
तुम नहीं जानते!
इसलिए उठो !
अपने पथरीले खेतों में
अब सोना नहीं...
लोहा उगाओ..!

(published)





1 comment:

Rajesh Joshi said...

भुला दीपक
भौते भल प्रयास छू आपुणी बोली में आपुण विचार प्रस्तुत करणक, मेरी हार्दिक शुभकामना छू। आशा करनू कि आघिल लै कुमाऊनी में तुमर ब्लोग पढ़नक अवसर प्राप्त होते रौल।