उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा की पहली पुण्यतिथि पर.
जनपक्षधर कलम के दो महारथी 'गिर्दा' और 'फैज़',२२ अगस्त, उत्तराखंड के जनमानस को अपने जनगीतों से झंकृत कर जगाने वाले क्रांतिकारी जनकवि 'गिर्दा' की पहली पुण्यतिथि है और यह साल २०११ उर्दू के जनवादी शायर फैज़ अहमद 'फैज़' की जन्मशती भी है.
इन दोनों रचनाकारों के बीच का साम्य केवल इतना ही नहीं है, फैज़ जहां उर्दू की रूमानियत भरी शायरी के 'इश्क-मुश्क,वफ़ा-ज़फ़ा,शराब -शबाब,लबो-रुखसारो-ज़ुल्फ़,की रवायत' से आगे निकलकर 'ग़म-ए-दुनिया,ग़म ए रोज़गार को ग़म ए यार, यानी प्रेम के व्यक्तिपरक दुःख से ऊपर रखते हुए शायरी में एक नए युग की शुरुआत करते हैं, उनकी शायरी में सुकोमल प्रेम के साथ शोषितों,ग़रीबों का दुःख है और संपत्ति और संसाधनों पर कुंडली मारे हुए पूंजीपतियों के प्रति आक्रोश भी. दुनिया भर में 'फैज़' का क़लाम अद्भुत सामंजस्य के साथ 'प्रेम और क्रान्ति' की ख़ुशबू फैला रहा है..उनकी शायरी इस तथ्य को उद्घाटित करती है के वास्तव में प्रेम की सुकोमल अनुभूति ही क्रांति के दुष्कर मार्ग को प्रशस्त करती है.
वहीँ 'गिर्दा' कुमाउनी कविता के ऐसे हस्ताक्षर हैं जिन्होंने आंचलिक भाषा के काव्य में जनसरोकारों की पैरवी का सूत्रपात किया,कुमाउनी कविता को नए उपमेय-उपमान और नयी विषयवस्तु दी. उनके गीत क्षेत्र की जनता की आवाज़ बन गए, उत्तराखंड पृथक राज्य आन्दोलन में इन जनगीतों ने प्राणवायु का काम किया. इस के अलावा 'फैज़' और 'गिर्दा' दोनों ही साहित्य के माध्यम से जनक्रांति के पैरोकार और 'जनता के उस राज' की स्थापना के स्वप्नदृष्टा रहे हैं जिसमे संसाधनों पर सभी का बराबर का हक़ हो. पूंजीपति सर्वहारा का, बहुसंख्यक अल्पसंख्यक का, या सवर्ण दलित का हर भेद ख़त्म हो सके, हर शोषण स्वाहा हो जाए.
इन दोनों रचनाकरों के सरोकारों की दो प्रतिनिधि रचनाएँ हैं..
*वि दिन हम नि हुंल // 'गिर्दा'
ततुक नि लगा उदेख,घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन कठुली रात ब्याली
पौ फाटला,कौ कदालो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन चोर नि फलाल
कै कै जोर नि चलौल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन नान ठुल नि रौल
जै दिन तयार-म्यार नि होल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
चाहे हम नि ल्याई सकूँ
चाहे तुम नि ल्ये सकू
मगर क्वे न क्वे तो ल्यालो उ दिन यो दुनी में।
वि दिन हम नि हुंल लेकिन
हमले उसै दिन हुंल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में
_______________________________
*हम देखेंगे // फैज़ अहमद 'फैज़'
हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन के जिस का वादा है
जो लौह -ए-अजल पे लिखा है
हम देखेंगे
जब ज़ुल्म -ओ -सितम के कोह -ए -गरां
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पौन तले
यह धरती धड धड धड्केगी
और एहल -ए -हुकुम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे
जब अर्ज़ -ए -खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जायेंगे
हम अहल -ए -सफा मरदूद -ए -हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख़्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो नज़र भी है मंज़र भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खलक -ए -खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
जनपक्षधर कलम के दो महारथी 'गिर्दा' और 'फैज़',२२ अगस्त, उत्तराखंड के जनमानस को अपने जनगीतों से झंकृत कर जगाने वाले क्रांतिकारी जनकवि 'गिर्दा' की पहली पुण्यतिथि है और यह साल २०११ उर्दू के जनवादी शायर फैज़ अहमद 'फैज़' की जन्मशती भी है.
इन दोनों रचनाकारों के बीच का साम्य केवल इतना ही नहीं है, फैज़ जहां उर्दू की रूमानियत भरी शायरी के 'इश्क-मुश्क,वफ़ा-ज़फ़ा,शराब -शबाब,लबो-रुखसारो-ज़ुल्फ़,की रवायत' से आगे निकलकर 'ग़म-ए-दुनिया,ग़म ए रोज़गार को ग़म ए यार, यानी प्रेम के व्यक्तिपरक दुःख से ऊपर रखते हुए शायरी में एक नए युग की शुरुआत करते हैं, उनकी शायरी में सुकोमल प्रेम के साथ शोषितों,ग़रीबों का दुःख है और संपत्ति और संसाधनों पर कुंडली मारे हुए पूंजीपतियों के प्रति आक्रोश भी. दुनिया भर में 'फैज़' का क़लाम अद्भुत सामंजस्य के साथ 'प्रेम और क्रान्ति' की ख़ुशबू फैला रहा है..उनकी शायरी इस तथ्य को उद्घाटित करती है के वास्तव में प्रेम की सुकोमल अनुभूति ही क्रांति के दुष्कर मार्ग को प्रशस्त करती है.
वहीँ 'गिर्दा' कुमाउनी कविता के ऐसे हस्ताक्षर हैं जिन्होंने आंचलिक भाषा के काव्य में जनसरोकारों की पैरवी का सूत्रपात किया,कुमाउनी कविता को नए उपमेय-उपमान और नयी विषयवस्तु दी. उनके गीत क्षेत्र की जनता की आवाज़ बन गए, उत्तराखंड पृथक राज्य आन्दोलन में इन जनगीतों ने प्राणवायु का काम किया. इस के अलावा 'फैज़' और 'गिर्दा' दोनों ही साहित्य के माध्यम से जनक्रांति के पैरोकार और 'जनता के उस राज' की स्थापना के स्वप्नदृष्टा रहे हैं जिसमे संसाधनों पर सभी का बराबर का हक़ हो. पूंजीपति सर्वहारा का, बहुसंख्यक अल्पसंख्यक का, या सवर्ण दलित का हर भेद ख़त्म हो सके, हर शोषण स्वाहा हो जाए.
इन दोनों रचनाकरों के सरोकारों की दो प्रतिनिधि रचनाएँ हैं..
*वि दिन हम नि हुंल // 'गिर्दा'
ततुक नि लगा उदेख,घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन कठुली रात ब्याली
पौ फाटला,कौ कदालो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन चोर नि फलाल
कै कै जोर नि चलौल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन नान ठुल नि रौल
जै दिन तयार-म्यार नि होल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
चाहे हम नि ल्याई सकूँ
चाहे तुम नि ल्ये सकू
मगर क्वे न क्वे तो ल्यालो उ दिन यो दुनी में।
वि दिन हम नि हुंल लेकिन
हमले उसै दिन हुंल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में
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*हम देखेंगे // फैज़ अहमद 'फैज़'
हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन के जिस का वादा है
जो लौह -ए-अजल पे लिखा है
हम देखेंगे
जब ज़ुल्म -ओ -सितम के कोह -ए -गरां
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पौन तले
यह धरती धड धड धड्केगी
और एहल -ए -हुकुम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे
जब अर्ज़ -ए -खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जायेंगे
हम अहल -ए -सफा मरदूद -ए -हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख़्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो नज़र भी है मंज़र भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खलक -ए -खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
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